| अतिरिक्त >> सत्य एवं प्रेरक घटनाएँ सत्य एवं प्रेरक घटनाएँरामशरणदास पिलखुवा
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प्रस्तुत है पुस्तक सत्य एवं प्रेरक घटनाएँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
मनुष्य के जीवन में कभी-कभी कोई ऐसी घटना भी घट जाती है, जिससे उस व्यक्ति
के स्वभाव में, उसके रहन-सहन तथा विचारों में परिवर्तन आ जाता है। ये
घटनाएँ दूसरों को भी प्रेरणा प्रदान करती हैं, विचारों में परिपक्वता लाती
हैं और जीवनस्तर को भी ऊँचा उठाती हैं।
आज संसार में पापों की वृद्धि हो रही है और झूठ, कपट, चोरी, हत्या, व्याभिचार एवं अनाचार बढ़ रहे हैं, लोग नीति और धर्म के मार्ग को छोड़कर अनीति एवं अधर्म के मार्गपर आरूढ़ हो रहे हैं, विलासिता और इन्द्रियलोलुपता बढ़ती जा रही है, भक्ष्याभक्ष्यका विचार उठता जा रहा है, अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, आतंकवाद और अपहरण की घटनाएँ प्रतिदिन सुनने को मिलती हैं, क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिये निरन्तर हत्याओं का दौर अबाध गति से चल रहा है। असंतोष और असहिष्णुता इतनी बढ़ गयी है कि लोग बात-बात पर आत्महत्या करने लगे हैं, हत्याओं के कारण मनुष्य का जीवन असुरक्षित-सा हो गया है, दम्भ और पाखण्ड की वृद्धि हो रही है—इन सबका कारण सत्संग अभाव, कुसंग तथा कुशिक्षाका प्रभाव है।
इन विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, सद्भाव आदि दैवीगुणों से समन्वित घटनाएँ हमें देखने और सुनने को मिलती हैं। इन सत्य घटनाओं को पढ़कर व्यक्ति को सत्प्रेरणा तो प्राप्त होती ही है, इसके साथ ही धर्म और ईश्वर में आस्था तथा विश्वास भी जाग्रत होता है, जिनसे जीवन सार्थक और कल्याणकारी बनता है।
मानव -जीवन की सार्थकता आध्यात्मिक सुख-शान्ति में है, इसके लिये सदैव जागरुक रहने की आवश्यकता है। चित्त के संशोधन के अनेक उपाय शास्त्रों में वर्णित हैं। परदोष, परनिंदा, परस्वार्थहरण की भावनाएँ—जो आज मानव को दानव बना रही हैं—इनसे बचने के लिये उच्च आदर्शयुक्त सच्ची घटनाएँ सशक्त साधन हैं। इन्हें पढ़कर मनुष्य स्वाभाविकरूप से इन घटनाओं के प्रति आकर्षित होता है और उसे सत्प्रेरणा प्राप्त होती है। इस प्रकार की घटनाएँ जीवनको सफल बनाने में सार्थक हैं।
कुछ वर्षों पूर्व भक्त रामशरणदास पिलखुवावालों ने सच्ची घटनाएँ भेजी थीं, जिन्हें ‘कल्याण’ में प्रकाशित किया गया था। गोलोकवासी भक्त श्रीरामशरणदासजी सनातनधर्म के परम अनुयायी, भगवद्भक्त तथा सात्त्विक एवं परिष्कृत विचारों के लेखक थे। वे पिलखुवा में रहते थे तथा संतप्रेमी थे, संतों का समागम निरन्तर होता रहता था। संतों के मुखारविन्द से सुनी हुई विलक्षण घटनाएँ तथा इसके अतिरिक्त अन्य कई घटनाएँ, जिनकी जानकारी उन्हें होती, उनकी सत्यता का पता लगाकर उन्होंने ‘कल्याण’ में प्रकाशनार्थ प्रेषित किया। उन्हीं घटनाओं को इस पुस्तक में संगृहीत कर प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।
आज संसार में पापों की वृद्धि हो रही है और झूठ, कपट, चोरी, हत्या, व्याभिचार एवं अनाचार बढ़ रहे हैं, लोग नीति और धर्म के मार्ग को छोड़कर अनीति एवं अधर्म के मार्गपर आरूढ़ हो रहे हैं, विलासिता और इन्द्रियलोलुपता बढ़ती जा रही है, भक्ष्याभक्ष्यका विचार उठता जा रहा है, अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, आतंकवाद और अपहरण की घटनाएँ प्रतिदिन सुनने को मिलती हैं, क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिये निरन्तर हत्याओं का दौर अबाध गति से चल रहा है। असंतोष और असहिष्णुता इतनी बढ़ गयी है कि लोग बात-बात पर आत्महत्या करने लगे हैं, हत्याओं के कारण मनुष्य का जीवन असुरक्षित-सा हो गया है, दम्भ और पाखण्ड की वृद्धि हो रही है—इन सबका कारण सत्संग अभाव, कुसंग तथा कुशिक्षाका प्रभाव है।
इन विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, सद्भाव आदि दैवीगुणों से समन्वित घटनाएँ हमें देखने और सुनने को मिलती हैं। इन सत्य घटनाओं को पढ़कर व्यक्ति को सत्प्रेरणा तो प्राप्त होती ही है, इसके साथ ही धर्म और ईश्वर में आस्था तथा विश्वास भी जाग्रत होता है, जिनसे जीवन सार्थक और कल्याणकारी बनता है।
मानव -जीवन की सार्थकता आध्यात्मिक सुख-शान्ति में है, इसके लिये सदैव जागरुक रहने की आवश्यकता है। चित्त के संशोधन के अनेक उपाय शास्त्रों में वर्णित हैं। परदोष, परनिंदा, परस्वार्थहरण की भावनाएँ—जो आज मानव को दानव बना रही हैं—इनसे बचने के लिये उच्च आदर्शयुक्त सच्ची घटनाएँ सशक्त साधन हैं। इन्हें पढ़कर मनुष्य स्वाभाविकरूप से इन घटनाओं के प्रति आकर्षित होता है और उसे सत्प्रेरणा प्राप्त होती है। इस प्रकार की घटनाएँ जीवनको सफल बनाने में सार्थक हैं।
कुछ वर्षों पूर्व भक्त रामशरणदास पिलखुवावालों ने सच्ची घटनाएँ भेजी थीं, जिन्हें ‘कल्याण’ में प्रकाशित किया गया था। गोलोकवासी भक्त श्रीरामशरणदासजी सनातनधर्म के परम अनुयायी, भगवद्भक्त तथा सात्त्विक एवं परिष्कृत विचारों के लेखक थे। वे पिलखुवा में रहते थे तथा संतप्रेमी थे, संतों का समागम निरन्तर होता रहता था। संतों के मुखारविन्द से सुनी हुई विलक्षण घटनाएँ तथा इसके अतिरिक्त अन्य कई घटनाएँ, जिनकी जानकारी उन्हें होती, उनकी सत्यता का पता लगाकर उन्होंने ‘कल्याण’ में प्रकाशनार्थ प्रेषित किया। उन्हीं घटनाओं को इस पुस्तक में संगृहीत कर प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।
राधेश्याम खेमका
ब्राह्मण युवक अपनी हरिजन बुआ के यहाँ आशीर्वाद लेने गया।
एक बार हम कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्राचीन महान् तीर्थ श्रीगढ़मुक्तेश्वर गये हुए थे। वहाँ घूमते-घूमते सहसा हमें मेरठ का सनातनधर्म-रक्षिणी सभाका कैम्प दिखायी पड़ा। अंदर जाकर देखा तो सनातनधर्म के विद्वान पूज्य आचार्य श्रीरामजी शास्त्री, श्रीवागीशजी महाराज, पूज्य पं. श्रीगंगाशरणजी रामायणी और पूज्य पं. श्री मथुराप्रसाद जी शर्मा ‘व्रजवासीजी’ आदि कथावाचक विराजमान थे। हमने सबके श्रीचरणोंमें प्रणाम किया। बात चलने पर पूज्य कथावाचक पं. श्रीमथुराप्रसादजी शर्मा ‘व्रजवासी’ महाराजने हम कट्टर सनातन धर्मी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदिका अपने हरिजनबन्धुओं से कैसा विलक्षण प्रेम था, इस सम्बन्धकी आपने स्वयं के जीवन में घटी बिलकुल सत्य घटना सुनायी, जिसे सुनकर सभी गद्गद हो गये। आपने कहा—
भक्त रामशरणदासजी ! तथाकथित राजनीतिज्ञों द्वारा आज जो यह कहा जा रहा है कि पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, आदि सनातनधर्मी लोगों ने हरिजनबन्धुओं पर अत्याचार किये हैं—यह बात इनकी बिलकुल झूठी है और सबको आपसमें लड़ाकर तथा फूटके बीज बोकर हिंदू-जाति का एवं देश का सर्वनाश करनेवाली है। पहले गाँवोंमें ब्राह्मण से लेकर हरिजन तक सब आपस में बड़े प्रेम से रहते थे। सब एक-दूसरे को यथायोग्य ताऊ, चाचा, बाबा, दादी मानते थे तथा कहते थे एवं एक-दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होते थे। उन दिनों की बातें आज भी स्मरण करते हृदय गद्गद हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पहले के मनुष्य एक-दूसरे का जूठा खाने-पीनेवाले आचारभ्रष्ट नहीं थे, पर उनका आपस मैं कैसा विलक्षण प्रेम था, इसे जरा सुनिये और इसपर विचार कीजिये—
यह लगभग 1972 की बात है। मेरा विवाह था। बारात गयी थी जुनारदार गनौरा ग्राममें। जब मेरा विवाह सम्पन्न हो चुका और बारात के विदा होने का दिन आया तो मेरे पूज्य पिताजी ने अपने मन में विचार किया कि इस गाँव में हमारे गाँव की कोई बेटी तो नहीं विवाही ? झटसे उन्हें स्मरण आया कि इस गाँव में तो हमारे गाँव के डालू हरिजन की लड़की विवाही है। फिर क्या था। पूज्य पिता जी दौड़े मेरे पास आये और आकर मुझसे बोले—
पिताजी—अरे मथुरा !
मैं —हाँ पिताजी !
पिताजी-बेटा ! तू जल्दी से अपने कपड़े पहनकर तैयार हो जा तुझे मेरे साथ चलना है।
मैं—कहाँ चलना है, पिताजी ?
पिताजी—बेटा ! इस गाँव में तेरी एक बुआ विवाही है, उसके घर पर चलना है।
मैं—पिताजी ! इस गाँव में मेरी बुआ—कौन-सी बुआ विवाही है ?
पिताजी—अरे मथुरा ! तुझे क्या पता—तू अभी बालक है। यहाँ पर तेरी एक बुआ विवाही है। यदि हम उसके घर पर नहीं गये तो कोई क्या कहेगा और तेरी बुआ बुरा मानेगी, उसे दुःख होगा और हमारी बड़ी बदनामी होगी।
मुझे पिताजी के मुख से यह सुनकर मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गाँव में मेरी बुआ विवाही है। मैंने मन में विचार किया कि यदि इस गाँव में मेरी बुआ विवाही होती तो क्या मैं अपनी उस बुआ को अबतक कभी भी नहीं देखता और अपनी बुआको नहीं जानता ! पिताजी के डर से मैं ज्यादा कुछ नहीं बोला बस, मैंने इतना पूछा—
मैं —पिताजी ! मुझे क्या करना है ?
पिताजी—तुझे अपनी बुआ को परोसे, साड़ी और पाँच रुपये भेंट में देने के लिये मेरे साथ चलना है। पिताजी की आज्ञा की देर थी। मैं झटसे कपड़े पहनकर तैयार हो गया। पिताजीने एक थाल सजाया, जिसमें असली घी की कचौड़ी, पूरी-मिठाई आदि परोसे रखे और एक सुन्दर साड़ी रखी तथा चाँदी के पाँच रुपये रखे। आगे-आगे ताशे-बाजे, ढपले बजते चले जा रहे थे और पीछे-पीछे पूज्य पिताजी के साथ मैं अपनी बुआ के यहाँ जा रहा था। नाई हाथ में थाल लिये जा रहा था। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था जब कुछ दूर आगे बढ़े तो एक मोहल्ला आया, जिसमें कुछ सूअर इधर-उधर घूम रहे थे। मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि हम तो जाति के ब्राह्मण हैं, यहाँ हमारी बुआ इस गंदे मोहल्ले में कहाँ पर विवाही है ?
आगे जा करके देखा तो एक मेहतर का घर आया। जब उस मेहतर की लड़की ने ताशे-ढपले बजने की आवाज सुनी तो वह झट से समझ गयी कि मेरे गाँव के मेरे भैया-भतीजे आ रहे हैं। वह अपना सब काम छोड़कर दौड़ी हुई घर से बाहर आयी और उसने आवाज देकर सबसे कहा कि जल्दी आओ, मेरे भैया-भतीजे आये हैं। अब क्या था, अब तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया।
एक बार हम कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्राचीन महान् तीर्थ श्रीगढ़मुक्तेश्वर गये हुए थे। वहाँ घूमते-घूमते सहसा हमें मेरठ का सनातनधर्म-रक्षिणी सभाका कैम्प दिखायी पड़ा। अंदर जाकर देखा तो सनातनधर्म के विद्वान पूज्य आचार्य श्रीरामजी शास्त्री, श्रीवागीशजी महाराज, पूज्य पं. श्रीगंगाशरणजी रामायणी और पूज्य पं. श्री मथुराप्रसाद जी शर्मा ‘व्रजवासीजी’ आदि कथावाचक विराजमान थे। हमने सबके श्रीचरणोंमें प्रणाम किया। बात चलने पर पूज्य कथावाचक पं. श्रीमथुराप्रसादजी शर्मा ‘व्रजवासी’ महाराजने हम कट्टर सनातन धर्मी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदिका अपने हरिजनबन्धुओं से कैसा विलक्षण प्रेम था, इस सम्बन्धकी आपने स्वयं के जीवन में घटी बिलकुल सत्य घटना सुनायी, जिसे सुनकर सभी गद्गद हो गये। आपने कहा—
भक्त रामशरणदासजी ! तथाकथित राजनीतिज्ञों द्वारा आज जो यह कहा जा रहा है कि पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, आदि सनातनधर्मी लोगों ने हरिजनबन्धुओं पर अत्याचार किये हैं—यह बात इनकी बिलकुल झूठी है और सबको आपसमें लड़ाकर तथा फूटके बीज बोकर हिंदू-जाति का एवं देश का सर्वनाश करनेवाली है। पहले गाँवोंमें ब्राह्मण से लेकर हरिजन तक सब आपस में बड़े प्रेम से रहते थे। सब एक-दूसरे को यथायोग्य ताऊ, चाचा, बाबा, दादी मानते थे तथा कहते थे एवं एक-दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होते थे। उन दिनों की बातें आज भी स्मरण करते हृदय गद्गद हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पहले के मनुष्य एक-दूसरे का जूठा खाने-पीनेवाले आचारभ्रष्ट नहीं थे, पर उनका आपस मैं कैसा विलक्षण प्रेम था, इसे जरा सुनिये और इसपर विचार कीजिये—
यह लगभग 1972 की बात है। मेरा विवाह था। बारात गयी थी जुनारदार गनौरा ग्राममें। जब मेरा विवाह सम्पन्न हो चुका और बारात के विदा होने का दिन आया तो मेरे पूज्य पिताजी ने अपने मन में विचार किया कि इस गाँव में हमारे गाँव की कोई बेटी तो नहीं विवाही ? झटसे उन्हें स्मरण आया कि इस गाँव में तो हमारे गाँव के डालू हरिजन की लड़की विवाही है। फिर क्या था। पूज्य पिता जी दौड़े मेरे पास आये और आकर मुझसे बोले—
पिताजी—अरे मथुरा !
मैं —हाँ पिताजी !
पिताजी-बेटा ! तू जल्दी से अपने कपड़े पहनकर तैयार हो जा तुझे मेरे साथ चलना है।
मैं—कहाँ चलना है, पिताजी ?
पिताजी—बेटा ! इस गाँव में तेरी एक बुआ विवाही है, उसके घर पर चलना है।
मैं—पिताजी ! इस गाँव में मेरी बुआ—कौन-सी बुआ विवाही है ?
पिताजी—अरे मथुरा ! तुझे क्या पता—तू अभी बालक है। यहाँ पर तेरी एक बुआ विवाही है। यदि हम उसके घर पर नहीं गये तो कोई क्या कहेगा और तेरी बुआ बुरा मानेगी, उसे दुःख होगा और हमारी बड़ी बदनामी होगी।
मुझे पिताजी के मुख से यह सुनकर मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गाँव में मेरी बुआ विवाही है। मैंने मन में विचार किया कि यदि इस गाँव में मेरी बुआ विवाही होती तो क्या मैं अपनी उस बुआ को अबतक कभी भी नहीं देखता और अपनी बुआको नहीं जानता ! पिताजी के डर से मैं ज्यादा कुछ नहीं बोला बस, मैंने इतना पूछा—
मैं —पिताजी ! मुझे क्या करना है ?
पिताजी—तुझे अपनी बुआ को परोसे, साड़ी और पाँच रुपये भेंट में देने के लिये मेरे साथ चलना है। पिताजी की आज्ञा की देर थी। मैं झटसे कपड़े पहनकर तैयार हो गया। पिताजीने एक थाल सजाया, जिसमें असली घी की कचौड़ी, पूरी-मिठाई आदि परोसे रखे और एक सुन्दर साड़ी रखी तथा चाँदी के पाँच रुपये रखे। आगे-आगे ताशे-बाजे, ढपले बजते चले जा रहे थे और पीछे-पीछे पूज्य पिताजी के साथ मैं अपनी बुआ के यहाँ जा रहा था। नाई हाथ में थाल लिये जा रहा था। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था जब कुछ दूर आगे बढ़े तो एक मोहल्ला आया, जिसमें कुछ सूअर इधर-उधर घूम रहे थे। मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि हम तो जाति के ब्राह्मण हैं, यहाँ हमारी बुआ इस गंदे मोहल्ले में कहाँ पर विवाही है ?
आगे जा करके देखा तो एक मेहतर का घर आया। जब उस मेहतर की लड़की ने ताशे-ढपले बजने की आवाज सुनी तो वह झट से समझ गयी कि मेरे गाँव के मेरे भैया-भतीजे आ रहे हैं। वह अपना सब काम छोड़कर दौड़ी हुई घर से बाहर आयी और उसने आवाज देकर सबसे कहा कि जल्दी आओ, मेरे भैया-भतीजे आये हैं। अब क्या था, अब तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया।
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